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राष्ट्र निर्माता के रूप में शिक्षकों का सम्मान

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05 सितंबर का दिन देश के दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन (1888-1975) के सम्मान में शिक्षक
दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन डॉ. राधाकृष्णन का जन्म हुआ था। शिक्षक दिवस को कब
अपनाया गया? राष्ट्रपति पद ग्रहण करने के कुछ हफ्तों के भीतर ही 5 सितंबर 1962 को डॉ. सर्वपल्ली
राधाकृष्णन के 75वें जन्मदिवस के उपलक्ष्य में इस दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाना आरंभ किया
गया। भारतीय दर्शन और एक प्रोफेसर के रूप में उनकी व्यापक प्रतिष्ठा के फलस्वरूप उन्हें अतुल्य योगदान के
लिए अपने देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी सम्मानित किया गया। उनके लिए कामना करने वालों में डॉ.
एलबर्ट स्विज़र, डायज़ टी सुज़ुकी, होरेस एलेक्ज़ेंडर, आर्नोल्ड जे. टोयेनबी, किंग्स्ले मार्टिन, और चार्ल्स ए. मूरी
आदि अंतरराष्ट्रीय शख्सियत शामिल हैं। वहीं दूसरे ओर घरेलू स्तर पर देश के विभिन्न नेताओं ने अपनी सोच,
विचार, पार्टी आदि से ऊपर उठकर शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान की सराहना की। मगर, उपर्युक्त सभी बातों
को ध्यान में रखते हुए, पूर्व प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि “वह एक महान शिक्षक हैं, जिनसे
हमने काफी कुछ सीखा है, और लगातार उनके विचार एवं दृष्टिकोण से सीखते रहेंगे।”

डॉ. राधाकृष्णन की इच्छा थी कि उनके 75वें जन्मदिवस को सामान्य रूप से मनाए जाने के बजाए, शिक्षण रूपी
महान पेशे को सम्मान देने के लिए शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए। डॉ. राधाकृष्णन अपने
जीवन में अधिकांश समय तक शिक्षण के पेशे में ही रहे थे। ऐसे में वर्ष 1962 में 05 सितंबर के दिन को
शिक्षक दिवस के रूप में भारत में अपनाया गया। इस वर्ष से ही ज़रूरतमंद शिक्षकों के कल्याण के लिए धन
इकट्ठा करने का कार्य भी शुरू किया गया। मगर 20 अक्टूबर 1962 को भारत-चीन युद्ध की वजह से शिक्षकों
के कल्याण के लिए 1962 एवं 1963 में इकट्ठा किए गए धन को सुरक्षा बॉन्ड में डाल दिया गया।

प्रत्येक वर्ष 05 सितंबर के दिन भारत के राष्ट्रपति शिक्षकों को राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित करते हैं। यह
पुरस्कार प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक स्तर पर शिक्षा के क्षेत्र में सराहनीय सेवा को पहचान देने के
उद्देश्य से उत्कृष्ट शिक्षकों को प्रदान किया जाता है। न केवल शैक्षिक दक्षता, बल्कि बच्चों के प्रति स्नेह,
स्थानीय समुदाय में प्रतिष्ठा और सामाजिक जीवन में संलिप्तता को भी इस पुरस्कार की श्रेणी में विचारणीय
माना जाता है।

ये पुरस्कार “शिक्षक दिवस” के अस्तित्व में आने से पहले से ही वर्ष 1959 से प्रतिवर्ष उत्कृष्ट शिक्षकों को दिया
जा रहा है। वर्ष 1968 में इस पुरस्कार का दायरा बढ़ाकर पारंपरिक रूप से चलने वाली संस्कृत पाठशालाओं के
शिक्षकों तक किया गया था। 1976 में इस पुरस्कार के दायरे को मदरसों के अरबी/पारसी शिक्षकों तक बढ़ाया
गया। आगे वर्ष 1993 में, सैनिक विद्यालय, नवोदय विद्यालय और परमाण ऊर्जा शिक्षा संस्था द्वारा चलाए जा
रहे विद्यालयों के शिक्षकों को इसमें शामिल करने के लिए कुछ अन्य सुधार किए गए। इस पुरस्कार के अंतर्गत

प्रत्येक वर्ष अधिकतम 350 शिक्षकों को उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए पुरस्कृत किया जा सकता है। पुरस्कार
विजेताओं का चयन ज़िला स्तर, राज्य स्तर और केन्द्र सरकार के स्तर पर तीन स्तरीय प्रणाली के जरिए किया
जाता है।

भारत में शिक्षकों की पूजा करने की परंपरा काफी लंबी है। वैदिक काल में छात्रों को शिक्षक के घर पर ही
पढ़ाया जाता था, जहां खाली समय में छात्र, शिक्षकों की सेवा करते थे। इसे “गुरुकुल” कहा जाता था, जो
सैद्धांतिक रूप से निःशुल्क शिक्षा व्यवस्था थी, हालांकि शिष्यों द्वारा शिक्षकों को गुरुदक्षिणा (नकदी, दया और
शपद आदि के रूप में सांकेतिक शुल्क) दी जाती थी। इस गुरुकुल व्यवस्था के अंतर्गत छात्रों के चरित्र निर्माण
को बेहतर तरीके से ढालने पर जोर दिया जाता था, ताकि छात्रों को बौद्धिक रूप से अधिक से अधिक सशक्त
एवं मज़बूत बनाया जा सके। प्राचीन भारत में एक छात्र को उसके शिक्षक की वंशावली से पहचान लिया जाता
था। इसने गुरु-शिष्य परंपरा की अवधारणा को जन्म दिया, जिसे गुरु-शिष्य संबंधों के रूप में भी पहचाना जाता
है। वहीं दूसरी ओर, बाद की शताब्दियों में शिक्षक अपने शिष्यों के घरों में रहा करते थे। उदाहरणस्वरूप
महाभारत में गुरु द्रोणाचार्य कौरवों के साथ उनके घर में रहते थे।

आगामी शताब्दियों में आवासीय विश्वविद्यालयों का उदय हुआ, जिनको बौद्ध मठों की तर्ज पर बनाया गया
था। इससे मतलब था कि शिक्षक और छात्र पूर्ण रूप से तटस्थ तरीके से मिलते थे। उत्तर पश्चिम भारत में
तक्षशिला विश्वविद्यालय (वर्तमान में पाकिस्तान में स्थित) दुनिया का पहला विश्वविद्यालय था। भारत में
तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, ओदांतपुरी, वल्लभी, पुष्पागिरी आदि कई विश्वविद्यालय थे। मगर मध्यकालीन युग
में विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा इनमें से कई विश्वविद्यालयों के विनाश से शिक्षा को बड़ा नुकसान पहुंचा।

19 शताब्दी की शुरुआत में भारत में आधुनिक शिक्षा की शुरुआत के साथ ही शिक्षक फिर से आगे आए। हिन्दू
कॉलेज (1817 में स्थापित), वर्तमान में कोलकाता में प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय आधुनिक शिक्षा व्यवस्था के रूप
में उच्च शिक्षण का पहला संस्थान था। इस संस्थान ने आधुनिक शिक्षा व्यववस्था में राष्ट्रीय चर्चा की शुरुआत
करने में अहम भूमिका अदा की। इस विचार को प्रेरित करने वाले नौजवान शिक्षक हैनरी लुइस विविआन
डेरोज़िओ (1809-1831), एक एंग्लो-भारतीय शिक्षक थे, जो केवल 23 वर्ष तक जीवित रहे। उन्होंने समकालीन
यूरोप के तर्कसंगतता और मानवतावाद के विचार को अपने छात्रों की सोच में शामिल किया।

उन्होंने “माय नेटिव लैंड” नामक भारत की पहली देशभक्ति कविता भी लिखी। इस कविता की पंक्तियां –
“इतिहास में मेरे देश की गरिमा, एक खूबसूरत प्रभामंडल पर थी, और एक ईश्वरीय शक्ति के रूप में इसको पूजा
जाता था, उस धरती की श्रद्धा कहां है, उसका गौरव वर्तमान में कहां है?” हैं। डेरोज़ियो को हिन्दू कॉलेज से
निकाल दिया गया था। छात्रों के अभिभावकों ने उन पर आरोप लगाया था कि वह विद्यार्थियों के मनोबल को
तोड़ने का काम करते हैं। कम उम्र में ही उनका देहांत हो गया था। लेकिन उनके अनुयायी एवं छात्र जिन्हें
डेरोज़ियन्स अथवा युवा बंगाल के नाम से जाना जाता था, वे समाज में एक रोशनी के रूप में उभरे। इनमें,
त्रिकोणमिति तरीके से एवरेस्ट की ऊंचाई मापने वाले राधानाथ सिकदर (1813-1870), वक्ता राम गोपाल घोष
और लेखक प्यारे चंद मित्रा शामिल हैं।

पश्चिमी भारत में बाल शास्त्री जांभेकर (1812-1845) सार्वजनिक जीवन के छात्रों के लिए अग्रणी शिक्षक थे।
मुंबई में नवनिर्मित एल्फिस्टोन संस्थान (वर्तमान में एल्फिस्टोन कॉलेज) में गणित के इस शिक्षक के छात्रों में
दादा भाई नौरोजी, वीएन मंडलिक, सोराबजी शापुरजी, डॉ. भाउ दाजी आदि शामिल हैं। ये सभी पूर्व में बॉम्बे
प्रेसिडेंसी में सार्वजनिक जीवन के अग्रणी लोग थे। रुगुनाथ हरीचंदरजी के साथ जांभेकर और जुनार्दन वासूदजी
ने जनवरी 1832 में साथ मिलकर बोम्बे दर्पण (बोम्बे मिरर) नामक अंग्रेजी-मराठी द्विभाषी समाचार पत्र
निकाला था।

कवि रबिन्द्र नाथ टैगोर (1861-1941) और राजनीतिज्ञ मदन मोहन मालवीय (1861-1945) ने देश में शिक्षाविदों
के रूप में अहम योगदान दिया। टैगोर ने विश्व भारतीय विश्वविद्यालय और मालवीय ने बनारस हिन्दू
विश्वविद्यालय के माध्यम से राष्ट्रीय शिक्षा की दो विभिन्न धाराओं का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने प्रतिष्ठित
शिक्षकों के रूप में ख्याति प्राप्त की।

शिक्षा के बढ़ते व्यासायीकरण और प्रोफेशनलिज़्म के साथ, शिक्षा की मूल्य प्रणाली खतरे में है। जब शिक्षा को
वस्तु के रूप में देखा जाता है तो शिक्षक की भूमिका केवल सेवा प्रदाता के रूप में सीमित हो जाती है। दूरस्थ
और ऑनलाइन शिक्षा ने शिक्षक को केवल सामग्री प्रदाता बना दिया है। केवल प्रोफेशनल और व्यावसायिक
उपलब्धियों को ही जीवन में सफलता का मानदंड नहीं माना जा सकता। न ही ये उपलब्धियां खुशहाल समाज
की दिशा में देश एवं लोगों को आगे बढ़ा सकती हैं। आदर्शवाद और संवेदनशीलता की शिक्षा के क्षेत्र में अहम
भूमिका है। छात्रों में इन गुणों को पैदा करने और उन्हें प्रोत्साहित करने में शिक्षक को सबसे बेहतर स्थान प्राप्त
है। हम सभी अपने शिक्षकों के लिए कुछ अच्छा करने की शपथ लेते हैं। अक्सर यह हम सभी के जीवन का
एक श्रेष्ठ हिस्सा होता है।

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